आज देश में अगर कोई तबका सबसे बदहाल है तो वो है अल्पसंख्यक मुसलमान। सच्चर कमेटी की रिपोर्ट पर गौर करें तो हम पाते हैं कि भारत में अंल्पसंख्यक समुदाय में 6 से 14 साल की उम्र के 25 फीसदी बच्चे या तो स्कूल नहीं जा पाते, या बीच में पढ़ाई छोड़ देते हैं। इसके ठीक विपरीत हमें मालूम है कि 21वीं सदी के भारत में जीविकोपार्जन और अच्छी जीवन-शैली के लिए साक्षरता, शिक्षा और काबिलियत का होना बेहद जरूरी है और ये तीनों मुस्लिम समुदाय में नहीं के बराबर है। ऐसे में इस समुदाय की तरक्की तो दूर रोजमर्रा की जिंदगी भी ठीक से चलना मुश्किल है। हालांकि, मुसलमानों की मौजूदा हालत के लिए केंद्रीय अल्पसंख्यक कार्य मंत्री रहमान ख़ान साहब ख़ुद मुसलमानों को ज़िम्मेदार मानते हुए कहते हैं, ”मुसलमानों की सबसे बड़ी दुश्वारी ये है कि हम खुद कोशिश करना नहीं चाहते”। उन्होंने अल्पसंख्यक साइबर ग्राम योजना के उद्घाटन समारोह में उन कमजोरियों की ओर भी इशारा किया जिसकी वजह से मुसलमानों का एक बड़ा तबका तरक्की से महरूम रह जाता है। कैसे अल्पसंख्यक समुदाय, खासकर मुसलमानों को कल्याण करने वाली योजनाओं का फायदा नहीं मिल पाता और वो योजनाएं कैसे दम तोड़ देती हैं, कुछ उदाहरण के जरिए हम उन वजहों और नतीजों से रूबरू कराएंगे।उनमें से एक है मौलाना आजाद एजुकेशन फाउंडेशन की योजना, जो मुसलमानों के शैक्षिक, सामाजिक व आर्थिक उत्थान के लिए शुरू किया था। साल 2012-13 में इस संस्था के लिए 100 करोड़ का बजट पास किया गया, लेकिन उनमें से सिर्फ एक लाख रुपये का इस्तेमाल हो सका।इसी तरह अल्पसंख्यक महिलाओं में लीडरशीप डेवलपमेंट को लेकर सरकार द्वारा अल्पसंख्यक महिला नेतृ्त्व विकास स्कीम (Scheme for Leadership Development of Minority Women) शुरू की गई। इस स्कीम के लिए साल 2012-13 में 15 करोड़ का बजट रखा गया, लेकिन सिर्फ 10.45 करोड़ ही खर्च किया जा सका।यही हाल कौशल विकास पहल (Skill Development Initiatives) के नाम पर साल 2012-13 में 20 करोड़ रूपये का बजट था जबकि इसमें सिर्फ 5 लाख रूपये ही इस्तेमाल हो सके।वहीं व्यावसायिक और तकनीकी पाठ्यक्रमों स्नातक और स्नातकोत्तर कोर्सेज के लिए योग्यता सह साधन छात्रवृत्ति योजना (Merit-cum-Means Scholarship for professional and technical courses of under graduate and post graduate) के लिए साल 2012-13 में 220 करोड़ का बजट था,लेकिन 184.07 करोड़ ही इस्तेमाल हुआ। हालांकि,2013-14 में स्थिति थोड़ी बेहतर रही। पोस्ट मैट्रिक छात्रवृत्ति (Post Matric Scholarship) योजना में भी कुछ ऐसा ही देखने को मिला। साल 2012-13 में इस स्कीम के लिए 500 करोड़ का बजट रखा गया लेकिन सिर्फ 340.75 करोड़ रूपये ही इस्तेमाल हो सके।
इसकी सबसे बड़ी वजह है आम लोगों तक सूचना का नहीं पहुंचना। और अगर सूचना पहुंच भी जाती है तो उसका फायदा उठाने के लिए तरीकों औऱ नियमों से वाकिफ न होना। इन्हीं कमियों को दूर करने के लिए डिजिटल एंपावरमेंट फाउंडेशन की सलाह पर केंद्रीय अल्पसंख्यक कार्य मंत्रालय ने माइनॉरिटी साइबर ग्राम नाम से एक नई योजना की शुरुआत की है। इसकी शुरुआत राजस्थान में अलवर जिले के एक ऐसे मुस्लिम बहुल इलाके चंदोली से की है जहां करीब 80 फीसदी अशिक्षित अल्पसंख्यक समुदाय के लोग रहते है। माइनॉरिटी साइबर ग्राम के तहत इस गांव को पूरी तरह से डिजिटल साक्षर बनाना और अल्पसंख्यक कार्य मंत्रालय की सभी योजनाओं से रूबरू कराना अहम उद्देश्य है, ताकि गांव का हर शख्स सूचना और तकनीक के माध्यम से योजनाओं का फायदा उठाने के साथ-साथ तरक्की की राह पर सरपट दौड़ लगा सके। उम्मीद है कि आने वाले दिनों में इस महत्वाकांक्षी योजना की बदौलत इस सबसे पिछड़े तबके की तकदीर के साथ-साथ तस्वीर भी बदल जाएगी।
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