मध्य प्रदेश के चंदेरी कस्बे में हर घर की खिड़की बुनकरों की ज़िंदगी दिखाती एक झरोखा सा है.
यहां घर-घर में साड़ी बुनने के हैंडलूम लगे हैं. बाहरी तापमान 45 डिग्री सेलसियस है और भरी दोपहरी में बिजली भी गुल है. लेकिन बुनकर इन सब की परवाह किए बिना लूम पर साड़ियां बुन रहे हैं.
मोहम्मद फ़ुरक़ान के घर में 16 सदस्य हैं जिनमें से दस साड़ियां बुनने का काम करते हैं. इस परिवार की पांच पीढ़ियां इसी काम से रोज़ी-रोटी कमाती आई हैं.
लेकिन पांच पीढ़ियों की मेहनत से खड़ी की गई नींव कुछ सालों पहले डगमगाने लगी थी.
फ़ुरक़ान बताते हैं, ‘चंदेरी साड़ियों के व्यापार में कई उतार-चढ़ाव आते रहे हैं. लेकिन कुछ सालों पहले ऐसा पड़ाव आया कि बुनकर चंदेरी साड़ियां बनाने का काम छोड़ कर दूसरे शहरों का रुख करने लगे थे. तब ऐसा लगा था कि चंदेरी अपना अस्तित्व खो देगा. लेकिन कंप्यूटर शिक्षा से इस कस्बे में ऐसी क्रांति आई कि लोग वापस चंदेरी आने लगे और साड़ियां बुनने का काम करने लगे.’
हौवा लगता था कंप्यूटर
फ़ुरक़ान को डिज़ाइनिंग का बहुत शौक था, लेकिन कंप्यूटर आने से पहले वे हाथ से ही डिज़ाइन बनाते थे जिसमें कई दिन लग जाते थे.
लेकिन अब फ़ुरक़ान चंदेरी के उन चुनिंदा बुनकरों में से एक हैं जो कंप्यूटर डिज़ाइनिंग जानते हैं. चंदेरी में ग़ैर-सरकारी संस्था डिजिटल इम्पावरमेंट फ़ाउन्डेशन ने बुनकरों को न सिर्फ़ कंप्यूटर डिज़ाइनिंग सिखाई बल्कि इंटरनेट पर व्यापार करने के तरीके भी.
अपना अनुभव याद करते हुए फ़ुरक़ान बताते हैं, ‘शुरुआत में जब कंप्यूटर को देखा तो मुझे वो हौवा सा लगता था. लेकिन जब उसे चलाना सीखा तो काम बेहद आसान हो गया है. जो डिज़ाइन बनाने में दो दिन लग जाते थे, अब मैं उसे मात्र दो घंटों में बना लेता हूं. अब हमारा वक्त तो बचता ही है साथ ही काम की गति बढ़ने से आमदनी भी 40 से 50 प्रतिशत बढ़ गई है.’
फ़ेसबुक, व्हट्स-ऐप पर व्यापार
सदियों से काग़ज़ पर बनते आ रहे चंदेरी डिज़ाइनों को अब न सिर्फ़ डिजिटाइज़ कर दिया गया है बल्कि इंटरनेट के ज़रिए नए डिज़ाइन खोज कर अब अलग-अलग तरह की चंदेरी साड़ियां बनाई जा रही हैं.
इतना ही नहीं अब चंदेरी के बुनकर धीरे-धीरे ई-कॉमर्स का हिस्सा बनते जा रहे हैं. शहरों में जाकर गली-गली भटकने के बजाय अब वे अपने घर बैठे ही व्हट्स-ऐप, फ़ेसबुक और चंदेरियान वेबसाइट के ज़रिए देश और विदेश से आर्डर ले कर साड़ियां बना रहे हैं.
चंदेरियान प्रॉजेक्ट के साथ काम कर रहे मुज़फ़्फ अहमद अंसारी उर्फ़ कल्ले भाई ने बताया कि इंटरनेट के आने से बुनकरों का शोषण भी बंद हो गया है.
सेठ का ज़माना गया
उन्होंने बताया, ‘यहां के बुनकर पढ़े-लिखे नहीं हैं लेकिन स्मार्टफ़ोन के ज़रिए फ़ायदा कमाना खूब जानते हैं. इससे पहले बुनकर बिचौलियों और सेठ के चंगुल में फंसा हुआ था क्योंकि वो उन्हें उनकी साड़ी की असली कीमत कभी नहीं बताते और मुनाफ़ा खुद कमा ले जाते थे. लेकिन अब बुनकरों को अपनी कला की कीमत बखूबी मालूम है. पहले सेठ बुनकरों पर हावी थे, लेकिन अब बुनकर सेठ पर हावी हैं.’
एक चंदेरी साड़ी बनाने में एक हफ़्ते से लेकर एक महीना भी लग जाता है.
इस साड़ी की ख़ूबसूरती इसके पीछे लगी मेहनत का खूब बयान करती है. इसका एक-एक रेश्मी धागे की चमक मानो बुनकरों की चमकी किस्मत का प्रतिबिंब हो.
चंदेरी साड़ी की विरासत का नई तकनीक से मिलन बदलते भारत की एक तस्वीर है. शायद वो भारत जहां कोई छोटा या बड़ा नहीं होगा क्योंकि सब डिजिटली सशक्त होंगे!