देश भर में आम चुनाव की घोषणा होते ही माहौल बदला-बदला सा नजर आने लगा है। कहीं एक दूसरे को नीचा दिखाने की होड़ तो कहीं किसी खास समुदाय का हितैशी बताने की होड़। इसी होड़ में कहीं ऐसा गुमनाम इलाका भी है जहां के लोग चुनावी गहमागहमी से बेखबर हर रोज की तरह अभावों से जूझते दो जून की रोटी को मोहताज हैं। हालांकि, नाउम्मीदी से उम्मीद लगाए उन लोगों को इस बात से खुशी है कि चाहे किसी की नजरे इनायत उनपर पड़े न पड़े, लेकिन उनके बीच का कोई तो है जो देश-विदेश के नेताओं की बराबरी करता है और बिना किसी तामझाम के गांव लौटकर वो सबसे मिलता-जुलता हैं, बात करता हैं, लोगों की समस्याएं भी सुनता है।
लेकिन, इससे क्या, बात तो तब बने जब लोगों के दुख दर्द दूर हों, समस्याओं का समाधान हो, बुनियादी सहूलियतें मुहैया हों, कुछ नई परियोजनाएं आएं, किसानों और उद्यमियों को उनके उत्पादों का उचित दाम मिल सके। और इसके लिए जरूरत है समाज को एक नई दिशा देने की, तकनीकी रूप से सक्षम बनाने की, ताकि हर शख्स अपनी राह खुद तय कर सफलता की नई उड़ान भर सके।
मैं बात कर रहा हूं फर्रुखाबाद जिले की, जहां की इमारतें अपने आप में धरोहर और इतिहास बयान करती हैं। वैसे तो ये इलाका किसी परिचय का मोहताज नहीं है। ये वही जिला है जिसने देश को राष्ट्रपति से लेकर कई केंद्रीय मंत्री दिए हैं।
पर अफसोस की बात ये है कि यहां विकास की जरूरतें आज तक पूरी नहीं हो सकी हैं। कई प्रोजेक्ट हकीकत बनने से पहले दम तोड़ गए। यहां का मशहूर जरदोजी कारोबार भी दम तोड़ रहा है। 250 के करीब यूनिट में साड़ी, दुपट्टा, लहंगा का काम होता है। ये कारोबार भी कुल 60 करोड़ रुपए सालाना का है। इन यूनिटों में भी बुनियादी सुविधाओं की दरकार है। कारीगरों को मेहनत का वाजिब पैसा नहीं मिल पाता। जरदोजी के विकास में पैकेज की जरूरत थी, लेकिन इस पर भी कोई योजना आज तक अमल में नहीं आ सकी।
कभी जरी और नक्काशी के लिए मशहूर फर्रुखाबाद की पहचान अब आलू बेल्ट के रूप में बन चुकी है। ज्यादातर लोग यहां आलू की खेती करने लगे हैं। यहां 36 हजार हेक्टेयर में 11 लाख मीट्रिक टन के करीब आलू की पैदावार है। लेकिन, यहां भी किसानों को वाजिब दाम नहीं मिल पा रहे। बड़े पैमाने पर उत्पादन के मुकाबले खपत ज्यादा नहीं होने की वजह से किसानों को ठीक दाम नहीं मिल पाते। आलू के निर्यात की मांग हो रही है। किसानों व कारोबारियों को अपने नेताओं से बड़ी उम्मीद भी थी, लेकिन वो भी पूरी नहीं हो सकी। हालांकि, आलू उद्योग के लिए जगह तलाशी जा चुकी है, लेकिन इसके लिए भी कोई योजना क्रियान्वित नहीं हो सकी है।
इसी बीच मेरी मुलाकात फरुर्खाबाद के छोटे से गांव शमशाबाद के एक 70 साल के बुजुर्ग से हुई। बिजली की अपनी दुकान पर हर दिन ग्राहक का इंतजार करते-करते इनके माथे पर पड़ी चिंता की लकीरें साफ दिख रही थीं। अपनी हालात बयान करते हुए उन्होंने बताया, “दिन भर सौ रुपए का सौदा नहीं हुआ। हालांकि पहले मैं कारीगर था। 5 साल पहले ही जरदोजी का काम छोड़ कर ये दुकान खोल ली। कहने लगे,‘कारखाने वाले 12 घंटे काम लेते हैं, देते हैं सवा सौ रुपया। 35 साल की जरदोजी में आंखें चली गईं।”
दरअसल, पूरे फरुर्खाबाद जिले का यही हाल है। इलाके के सैकड़ों कारीगर लहंगा चुन्नी में जरदोजी का काम कर रहे हैं। गाँव के हर घर में कोई न कोई जरदोजी काम करता नजर आ जाएगा। उनकी जिन्दगी जहन्नुम बन गई है। पढ़ाई छोड़ कर छोटे-छोटे बच्चे भी इस काम में लगे हैं।
लेकिन, जरदोजी कारीगर कभी इस इलाके में चुनावी मुद्दा नहीं बने। 67 साल के रिटायर कारीगर शब्बन भाई भी इसी समुदाय से ताल्लुक रखते हैं जो अपना दर्द बयान करते हुए कहते हैं- “हम गरीबों की कौन सुनता है, बस अल्लाह से उम्मीद लगाए बैठे हैं। पचासों साल में किसी ने हमारी सुध नहीं ली तो अब किसी से क्या कहें। सब अइसे ही चल रिया है, का बताएं”।
दरअसल, शब्बन मियां की लाचारी और दर्द के पीछे एक लंबी दास्तां है, जिसे एक दिन में नहीं सुलझाया जा सकता। ऐसे हालात से निपटने का बस एक ही तरीका है- शिक्षा औऱ तकनीक । बिना शिक्षा और तकनीक हासिल किए ये लोग नाहिं दुनिया के साथ कदमताल कर सकते हैं और नाहिं अपनी बदहाल जिंदगी की सूरत बदल सकते हैं। हालांकि, इसी इलाके में कई ऐसे घराने हैं जो आज भी अपनी हैसियत के मुताबिक अपने इलाके की खिदमत करना चाहते हैं। उन्हीं लोगों में से एक हैं जनाब हादी अकबर सैफवी साहब, जिंहोंने अपनी पूरी हवेली एक नेक मकसद के लिए वक्फ कर दी है। जिसकी जिम्मेदारी डिजिटल एंपावरमेंट फाउंडेशन के सुपुर्द है।
डिजिटल एंपावरमेंट फाउंडेशन ने इस जगह का इस्तेमाल इसी इलाके के लोगों को नई तकनीक औऱ शिक्षा के जरिए नई राह दिखाने के लिए सामुदायिक सूचना संसाधन केंद्र बनाने का फैसला किया है। जहां समाज के हर तबके को कंप्यूटर और अंग्रेजी की शिक्षा के साथ साथ हर तरह की जरूरी जानकारी मुहैया कराई जाएगी, जिससे उन्हें अपने रोजगार को बढ़ाने में मदद मिल सके। फिलहाल इसकी शुरुआत फर्रुखाबाद जिले के एक छोटे से कस्बे शमशाबाद से की जा रही है, लेकिन, भविष्य में दूसरे पंचायतों में भी शुरू की जाएगी।